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भारतीय संस्कृति के लिए दो शब्द

वैचारिक प्रवाह
वैचारिक प्रवाह
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आज दुनिया में लगभग 350 मत विश्व में प्रचलित हैं किसी मत के मानने वालों की संख्या अधिक है तो किसी की कम कोई अपनी संख्या बढ़ाने के लिए संघर्ष कर रहा है तो कोई अपना अस्तित्व बचाने के लिए तो कुछ मत कुछ भी नही कर रहे हैं केवल खुद में ही गुम हैं, इनमे कौन सत्य पथी है और कौन नही यह शोध का विषय है लेकिन कौन मानवता का हितैषी है यही मानव हित में जानना अति आवश्यक है?
इतिहाश का हम यदि सुक्छ्मता से अवलोकन करें तो हमे यही मिलेगा कि धर्म को केंद्र में रखकर जितना रक्तपात हुआ है उतना शायद ही किसी वस्तु /विचार इत्यादी के लिए हुआ हो ,,मत / धर्म सदैव से ही साम्राज्यवादियों ,अतातायियों,धनपिपाशुओं ,विफल राजतन्त्रों का प्रिय अस्त्र रहा है और शायद रहेगा भी ?
क्योंकि धर्मांध व्यक्ति भूख प्यास गरीबी अशिक्छा शिष्टाचार मानवता इत्यादी सब कुछ भूलकर मात्र केवल एक धार्मिक अस्त्र बन कर रह जाता है संचालनकर्ता उस व्यक्ति का या समूह का जिस तरह चाहे उपयोग कर सकता है और यह अस्त्र मानव सभ्यता संस्कृति कला शिल्प आदि का विनाशक होता है सम्पूर्ण विश्व में इसी तरह के अस्त्रों से न जाने कितनी बार सभ्यताओं का विनाश किया गया न जाने कितने पुस्तकालयों संग्रहालयों बेमिशाल शिल्पों आदि को इस पृथ्वी से सदा के लिए मिटा दिया गया आज हम उनकी कथाएँ ही सुन सकते हैं केवल मिटने की कथाएँ या मिटाने वालों की कथाएँ इस चरम पन्थ से किसका भला हुआ है ?
और अब तो इस व्यवस्था को पोषित करने वाले एक और और नये धर्म का अवतरण हो चुका है जो धीरे धीरे पल्लवित हो रहा है यह बात दीगर है कि इसके अवतारी तो बहुत हुए हैं लेकिन इसकी आसमानी पवित्र पुस्तक का इस धरा पर अभी तक अवतरण नही हुआ या शायद हो भी चुका हो लेकिन उसे दुनिया की निगाहों से छुपाया गया हो जिसको नियत समय पर इंकलाबी ढ़ंग से इस दुनिया के सामने रक्खा जाए जिस तरह कुछ एक आसमानी पुस्तकों को विस्फोटक तरीके से दुनिया के सामने पेश किया गया ,,अभी यह धर्म अत्याधिक अस्थिर है ,,ठीक पेंडुलम की तरह कभी आस्तिकता की तरफ तो कभी नास्तिकता की तरफ और बीच में खुद अपने तरफ इशारा करते हुए अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहा है इस धर्म की सबसे प्रमुख बात है इसकी विचारधारा ,,जो इसके पास है ही नही, हमेशा यह विचारधारा के लिए आलम्बन को खोजता रहता है,एक समय में यह विचारधारा प्रचलित थी ”ईश्वर अल्ला तेरो नाम” लेकिन एक पक्छ ने यह सुना ही नही कुछ मुर्गे अपने अपने दरबों से बांग देने में लगे हुए थे किसी भी दरबे से बांग के अलावा और कोई आवाज नही गूंजी धीरे धीरे यह विचार / नारा खुद में ही खो गया ,,
सेकुलर या धर्मनिर्पेक्छ शब्द ही समझ से परे है ,,भारतीय सभ्यता में हर वस्तु को धर्म के साथ जोड़ा गया है हर वस्तु व्यक्ति विचार का एक धर्म होता है ,,फिर राज धर्म से विमुख राजतन्त्र क्या वास्तविक राजतन्त्र होगा ?एक प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि पहले के राजा जिनके लिए यह शब्द प्रयोग किया गया क्या वह समय दूसरा था उस समय के राजा धर्मांध थे ?परन्तु कैसे क्या उस समय भारत में अनेकों धर्म नही थे बौद्ध धर्म जैन धर्म सिक्ख अन्यान्य मतावलम्बी स्वतंत्रता से अपने पंथों के अनुसार अपने अपने कर्तव्यों का सम्यक निर्वहन किया करते थे फिर राजा चाहे जिस धर्म का हो वह उन्हें प्रश्रय देता था कोई वैमनस्य नही था आज भी वह युग भारत का स्वर्ण युग कहा जाएगा उस काल विशेष में अनेक मन्दिर एवं भव्य शिल्प थे जिनकी हम केवल कहानिया ही सुन सकते हैं (केवल सुन ही सकते हैं पढ़ नही सकते क्योंकि कथित सेकुलर गुटों के कुचक्र ने इतिहाश को ही बदल दिया ) जिनकी भव्यता विश्व प्रसिद्द थी आज जन मानस उन्हें भूल चुका है क्योंकि कहीं भी उसका स्पष्ट लिखित प्रमाण नही मिलता क्या वह महान शिल्प भारतीय संस्कृति की अमूल्य धरोहर नही थी ? लेकिन मात्रिहन्ता गुट की बेशर्मी के कारण हम वनवासी जंगली आदि उपाधियों से नवाजे गये और आज भी यही उपाधियाँ हमारे ऊपर चिपकी हुई हैं,, त्कछशिला नालंदा पाटलिपुत्र आदि अनेक शेक्छिक केंद्र थे जिनमे बहुत से महापुरुषों एवं विदुषियों ने शिक्छा ग्रहण की एवं सम्पूर्ण विश्व को अपने ज्ञान से आलोकित किया ऐसे शेक्छिक केन्द्रों का अस्तित्व मिटा दिया गया उनके शोधों को आग के हवाले कर दिया गया ,,पता नही कितनी अमूल्य पांडुलिपियों को अपनी शक्ति प्रदर्शन हेतू आक्रान्ताओं ने खत्म कर दिया , इन शेक्छिक केन्द्रों में विभिन्न धर्मों/पंथों के विद्यार्थी अध्धय्यन करते थे, जिनके लिए उस समय का राज तन्त्र उदारता से सभी आवश्यक सामग्रियों की व्यवस्था करता था,,फिर इतनी तीव्र गति से जो बदलाव आया वह किसकी देन है क्या भारत का राज तन्त्र विफल था ?
राजतन्त्र विफल नही था परन्तु वह कट्टर नही था अतएव कट्टरता का प्रतिरोध नही कर पाया हमारी सांस्कृतिक उदारता ही हमारे लिए सदैव ही घातक सिद्ध हुई कुछ लोगों ने इस सदाशयता का अत्याधिक दुरूपयोग किया जिसके कारण भारत को सैकड़ों वर्षों तक अपमानित होना पड़ा और आज भी अपमानित हो रहा है हमारी सदाशयता को हमारी कमजोरी समझा जाता है अगर भारतीय सभ्यता इतनी कमजोर होती तो आज इसका नाम लेवा भी कोई नही होता आज भी विश्व के स्म्क्छ तनकर खड़े हैं कुछ कमजोरियां हैं जिनका मुकाबला किया जाना अति आवश्यक है अन्यथा भारत का वह सांस्कृतिक पतन का युग आने में देर नही लगेगी जिसके लिए भारतीय जनमानस ने अपने रक्त की आहुतियाँ दीं,,आज व्यक्ति ही नही मीडिया एवं विभिन्न दृश्य चैनल भी भारतीय संस्कृति का निरंतर अपमान करने में संलग्न है कोई देवी देवताओं पर घृणित टिप्पणियाँ करने में मशगूल है तो कोई देवताओं का स्वांग रचकर लोगों का मनोरंजन करने में तल्लीन है और बेशर्म दर्शक इन चैनलों को प्रोत्साहित करने में तल्लीन हैं ,,पन्थ विशेष पर जरा सा भी कुछ शब्द किसी ने कह दिया तो तथा कथित धर्म निर्पेक्छ लोगों की नानी मर जाती है लेकिन यह जो रोज दृश्य श्रव्य चैनलों के द्वारा विभिन्न देवी देवताओं का अपमान किया जा रहा है उन्हें इनकी फूटी आखें देख ही नही पा रही हैं ”एक मकबूल को देश से इतना शोर शराबा होने के बाद देश से निर्वासित किया गया था लेकिन उस व्यक्ति को धर्म विशेष देशों ने हाथों हाथ ले लिया ,,कुछ दिनों पूर्व राम चरितमानस पर कार्टून फिल्म बनाई गयी जिसमे हमारे देवी देवताओं को नई नई गालियों से नवाजा गया लेकिन किसी ने चूं तक नही की सभी गूंगे बहरे बने रहे यही कृत्य अगर किसी अन्य पन्थ के लिए किया गया होता तो जांच समिति गठित कर दी जाती मीडिया रुदालियों की तरह सर पीट रही होती की भगवाधारी आतंकियों के द्वारा पन्थ विशेष को अपमानित करने की शाजिश रची जा रही है , क्या धर्म निर्पेक्छ्ता की यही परिभाषा है ?
विश्व का कोई भी देश अपनी संस्कृति पर गर्व करता है उसकी अमूल्य धरोहरों को अपने सीने से लगाकर रखता है न कि उन धरोहरों पर वाद विवाद करता है एवं उनकी सत्यता एवं प्रमाणिकता को संदेहास्पद बना देता है लेकिन हमारे महान धर्म निर्पेक्छ लोगों को यही अच्छा लगता है कि कोई उनकी माँ को गाली दे और वह उस पर अन्वेषण करने को समिति गठित कर दें कि उनकी पूज्यनीय वन्दनीय माँ ऐसी थीं अथवा नही? आज किसी भी देश को देखिए वह अपनी सांस्कृतिक विरासतों को संभालने के लिए पूरी तन्मयता से लगा हुआ है ,,चीन की दीवार जो महान ऐतिहासिक विरासत है उसकी रक्छा के लिए वहां की सरकार सतत प्रयत्नशील है उसके अस्तीत्व को चिरस्थायी बनाने के लिए विभिन्न प्रयोग किये जा रहे हैं न कि चंगेजी आक्रमण या हूणों के आक्रमण को वहां की सरकारें वहां की गौरव गाथा बना गायन करवा रही है लेकिन महान भारतीय परम्परा के वाहकों को दासता का गायन ही अधिक रुचिकर प्रतीत होता है ,,**************जय भारत

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