वैचारिक प्रवाह
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नये वर्ष के आवाहन को कलियाँ भी आँखे खोल रहीं ,,
पक्छी कलकंठ मिलाते हैं झरनों के कोमल कलकल में ,
आन्दित प्रतिध्वनी गूंज रही जीवन दिगंत के अम्बर में ,,
किन्नरियाँ भी गायन करतीं अंतर्मन में उल्लास लिए ,
शस्य श्यामला माँ धरती भी सतरंगी श्रृंगार किये ,,
आलोक अरुण किरणों का है नई राह दिखलाता ,
नव प्रभात का मधुर पवन अवसाद हरण कर जाता ,,
विश्व देव सविता संवत्सर भ्रमर गीत सब गाते हैं ,
पुलकित कदम्ब झूमे पलाश आन्न्दोत्शव सभी मनाते हैं ,,
पंचभूत औ महातत्व अनहत नाद सुनाते हैं ,
संवत्सर के आवाहन को सब आतुर हो जाते हैं ,,
**************जय भारत******************
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