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खड्ग खंग में लिए हुए ,मै आया तेरे द्वार,,

वैचारिक प्रवाह
वैचारिक प्रवाह
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ज्वाला अब तक बुझी नही है ,क्या तेरी हवि मै दे दूँ ,
वो व्यभिचारी तेरा विष फण,निज चरणों से मर्दन कर दूँ ,,
कब तक देखूं ये जीवित नर पशु,घूंट लहू का पीयूं,
नरसिंह बनू छत विछत करूं ,अस्थिमाल मै पहनूं ,,
ए महादम्भ के दानव,हो तेरा कैसे उद्धार ,
खड्ग खंग में लिए हुए ,मै आया तेरे द्वार,,
शीतल प्राण धधक उठ्ठे हैं ,तेरा कलुषित कर्म देखकर ,
रक्त खौलता ह्रदय गरल है,आ आलिंगन में भर लूँ छण भर,,
त्क्छ्क बन पंकज में छुपा हुआ है ,शांत झील में पड़ा हुआ ,
मै पछिराज बन निगलूँ तुझको,तूँ है विष से भरा हुआ ,,
तूं सुप्त वासना की है मूरत ,कलुषित है तेरा संवाद ,
त्रिण से बेधुं च्क्छु तुम्हारा,वह काक तुम्हे क्या नही याद,,
विश्व देव दिनकर को छेड़ा,छन में वाष्प बना दूंगा ,
अस्थि शेष भी नही बचेगा ,द्वादस च्क्छु निहारूंगा ,,
जय भारत

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