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प्रेम के कुछ रंग (VALENTINE CONTEST)

वैचारिक प्रवाह
वैचारिक प्रवाह
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आईये फिर से एक नया गीत लिखें ,
खूं की स्याही से ऐसा एक संगीत बुने,,
सुर्ख जोड़ा है सुर्ख है स्याही भी ,
आईये सुर्ख़ियों कि कुछ तारीफ़ करें,,
हो रही दौड़ अब प्रेमियों की भी ,
अजब तमाशा है पैमाईश भी है नई,,
प्रेम को रक्खा है निशाने पर जी ,
दागतें हैं कुछ लोग गोलियां भी नई ,,

,

उनके जज्बात में है यह संगदिली भी नई ,,

वो जो कहते हैं बेवफा थी, वो – वो ,
रोज लिखते हैं खुद इबारत नई नई ,,
दिल टूट गया लगाया ही क्यों था ,
दिल दिया था तो कुछ माँगा ही क्यों था?
वफा करके न कोई आरजू करो !
वो जो संगदिल हैं आप ऐसे न बनो !
उसे ना यूँ आप नुमायश करिये ,
दिल में रक्खा है तो दिल में रखिये ,
वो हैं आपकी शराफत का पैरहन ,
इश्क करिये यूँ इबादत करिये ,
पड़े हैं आप के दिल में छाले जो ,
मरहमों के लिए ना दुआ करिये ,,
जख्म रहने से माशूक याद रहता है ,
जख्म माशूक है उसकी बन्दगी करिये,,
मैने तो जिन जिन रूपों में, प्रेम को अब तक जाना है,
क्या वह इन सब से बेगाना है ,
मीरा भी थीं प्रेम दीवानी, सूर भी खुद से बेखुद थे ,
तुलसी ने गर राम को चाहा ,बिस्मिल भी तो व्याकुल थे ,,
राणा विरही वीर शिवा भी ,यह सब प्रेम की मूरत थे ,
आतुरता थी इनके मन में ,मिलने को यह भी व्याकुल थे ,,
जिस फंदे को गले लगाया,वीर भगत की माशूका थी,,
जिसकी खातिर दीवाने थे ,बोष की वो महबूबा थी ,,
दिल्ली को जब बापू ने ,गर्म खून से नहलाई थी,
राम राज्य का नारा जो था ,यही सीख सिखलाई थी,,
क्या आज हिमालय का सर है उंचा, भारत के इन वीरों से,
बिकता है सतीत्व सिया का ,कुंती रोती है पुत्रों पे ,
यह चमन वोट के बीमारों का ,देश की चर्चा बारों में ,
नर्तकियों की थिरकन पर नाचें ,जनता झुलसे अंगारों में ,,
महलों से बाहर अब जनता को ,तुम सिहासन लाने दो ,
निशि को दूर भगाओ अब तुम ,उठकर दिया जलाने दो ,,
नमस्कार हे प्रथम पुरुष ,माता को स्वर्ग बनाने दो,,

जय भारत

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