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ज्ञान :-चिंतन

वैचारिक प्रवाह
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ज्ञान :-सरल शाब्दिक अर्थों में हम यह कह सकतें हैं (किसी वस्तु ,विषय,विचार को भली भांतिजानना)
सामान्यतः इसके दो रूप होते हैं ,वाह्य ज्ञान एवम आतंरिक ज्ञान ,,लेकिन इसे और भी कई अनुभागों में विभक्त किया जा सकता है ,,
अब यक्ष प्रश्न यह है की यह हमे मिलता कहाँ से है,,क्या इसे ले कर हम पृथ्वी पर प्रकट होते हैं या केवल वाह्य जगत के अनुभवों एवं अध्ययन से ही इसका विकास होता है? वाह्य ज्ञान :-ज्ञान हमे अगर वाह्य जगत से प्राप्त होता तो इस जगत का लगभग हर व्यक्ति सर्वगुण सम्पन्न होता (सभी गायक,चित्रकार ,वक्ता ,लेखक इत्यादी सभी कुछ बन जाते ) क्या हम सब की इच्छा इन सब गुणों को धारण करने की नही होती लेकिन अथक प्रयाश करने के बावजूद भी हम अन्तर्निहित गुणों का ही अच्छी तरह विकास कर पाते हैं ,अन्य गुणों में मुश्किल से एक आध कदम ही आगे बढ़ पाते हैं और उन कदमों को भी निरंतर अभ्याश की आवश्यकता पड़ती रहती है लेकिन हमारे अन्तर्निहित गुण के लिए हमे अभ्याश की आवश्यकता नही पडती ,,
एक भौतिक उदाहरण :- स्वर्ण एवं लौह दो धातुएं हैं यदि हम दोनों को चुम्बकत्व के गुणों से परिचित करवाना चाहें तो स्वर्ण कभी भी चुम्बकत्व के गुणों को धारण नही करेगा ,जबकि लोह त्वरित ही उस गुण को ग्रहण कर लेगा क्योंकि उसमे उक्त गुण अन्तर्निहित है उसे केवएक आघात की आवश्यकता थी वह गुण मुखर हो उठा |
हम भी पृथ्वी पर कुछ गुणों को न्यूनाधिक मात्रा में लेकर जन्म लेते हैं ,,हममे जिस गुण की प्रधानता होती है वाह्य जगत के कुछ एक आघात से ही वह गुण विकसित हो जाता है (दस्युओं के मध्य जन्म लेने वाला बालक साधु बन जाता है और साधुओं के बीच उत्पन्न बालक दस्यु बन जाता है) दोनों ही परिस्थितियों में विपरीत अघात के बावजूद भी (गुण रूपी बीज) अपना अस्तित्व कायम रखते हुए विकाश कर जाता है ,,वाह्य प्रेरक निरर्थक सिद्ध हो जाते हैं |
विचारकों में इस मत को लेकर चाहे जितना द्वंद हो,,लेकिन वही चिन्तक स्वयम अपने जीवन का सूक्ष्मता से अवलोकन करें तो पायेंगे की बालपन में भी वह चिंतनशील ही थे उसी गुणों का उनमे विकाश हुआ | (एक ही माँ के दो जुडवा बच्चे एक सी परवरिश फिर भी गुणों एवं आचरण में जमीन आसमान का अंतर दोनों एक ही पेट से जन्मे फिर भी अलग अलग विचारधारा यह उनका अन्तर्निहित ज्ञान ही है जो स्रसटा द्वारा उन्हें प्रदान किया गया उनके अन्दर जो है वह उसी की ग्रहण करेंगे ,वह अन्य ज्ञानों के साथ सामंजस्य बैठाने का प्रयाश करेंगे ,परन्तु जो उनका अन्तर्निहित ज्ञान है वह सदा आगे रहेगा )
आतंरिक ज्ञान:-वह ज्ञान जो हमे हमारे मनोभावों से अवगत करवाता है ,यथा भूख ,प्यास इत्यादी (वाह्य +आतंरिक ज्ञान) जिसके द्वारा हम आध्यात्मिक जगत से जुड़ने का प्रयत्न करते हैं ,यह आत्मशोधन की प्रक्रिया है जो सबके अन्दर न्यूनाधिक मात्रा में सुप्तावस्था में पड़ी रहती है ,जिसके अन्दर यह अधिक मात्रा में होती है वह उस अनंत ऊर्जा स्रोत के निकट थोड़ा जल्द पहुंच जाता है और जिसके अन्दर कम मात्रा में होती है उसे कुछ अधिक प्रयाश करना पड़ता है |
अनीस्वरवादी या नास्तिकता :- मन में सृजन करता के विषय में भ्रम होना स्वाभाविक है ,अंतर में इतने अधिक विरोधाभाषी प्रश्न सदैव मन को विचलित करते रहते हैं ,क्योकि भोतिक रूप में हम उस परम सत्ता को महसूश नही कर पाते एवं उसके न्याय पर भी संदेह होने लगता है ,संदेह होना स्वाभाविक भी है ,हम खुद को एक स्वतंत्र सत्ता के रूप में देखते हैं ,भौतिक दृष्टी से यह सही है, हम कोई कार्य करते हैं,लेकिन उसके प्रेरक तत्व को भूल जाते हैं ,(एक नवजात शिशु उसकी प्रेरणा क्षुधा की प्रेरणा एवं शांत करने का आश्रय/आलंबन उसे उसके प्रेरक द्वारा दिया गया यह ज्ञान उसके अन्तःकरण विद्यमान रहता है ऐसे ही बहुत से ज्ञान सूक्ष्म रूप में उसके अंतर में विद्यमान रहते हैं ) अनीश्वरवादियों या नास्तिक्वादियों के अंतर में भी उस परम सत्ता का सूक्ष्म अंश विद्यमान रहता है ,लेकिन वह विचारों ऐसे विचारों से जो केवल भौतिकता से ही भरे होते हैं की आध्यात्मिक आघात के लिए एक प्रतिरोध निर्मित कर लेते हैं,यह प्रतिरोध सभी के अन्दर विद्यमान रहता है ,कुछ के अन्दर सकारात्मक रूप में तो कुछ के अन्दर नकारात्मक रूप में ,,हम सकारात्मक आघातों के प्रति ग्रहणशील हो जाएँ ,, प्रतिरोध निर्मित न करें ,,सृजन कर्ता को हम महशूश कर लेंगे, लेकिन भोतिक दृष्टी से नही वह स्थूल नही है एक ऊर्जा सदृश्य है ,जिस तरह हम हवा को महशूश करते हैं ,,लेकिन इसमे थोड़ा फर्क है ,हवा भौतिक वस्तु है हमे अधिक एकाग्रता की आवश्यकता नही पडती (आप जंगल में जाएँ जहां मानव या मानव निर्मित आवाजे न आती हों ,,आप आवाजें सुने पहले आप को सभी आवाजें अनियंत्रित शोर लगेंगी आप विचलित हो उठेंगे ,,लेकिन एकाग्र हों कर सुने एक संगीत प्राकृतिक संगीत सुनाई पड़ेगा आप भाव विभोर हो जायेंगे वह सारे मानव निर्मित संगीतों से अलग असीम आनन्द देगा (लेकिन इसके लिए आपको अन्तःकरण को खाली करना होगा ,,जो भय,ईर्ष्या द्वेष इत्यादी तमाम ऐसे मन को भ्रमित करने वाले तत्व हैं ,, से अलग हटकर एक जगह मन को केन्द्रित करना होगा ) फिर जो स्वर आपके कानों में पड़ेगा वह प्राकृतिक ईश्वरीय संगीत होगा , कुछ ऐसा ही प्रयत्न आप उस परम सत्ता को भी मह्शूश करने के लिए भी करें आपका जोभी अनुभव होगा वह आपके लिए होगा | विषय से भटकने के लिए क्षमा चाहता हूँ ,,शीर्षक के अनुसार लेखन का प्रवाह नही चल पाया ,,

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